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रात के दो बजे जब काठगोदाम एक्सप्रेस हिचकोले खाते हुये एक बार फिर रुक गई तो स्लीपर की साइड बर्थ पर मैं दुपट्टा ओढ़े सोने की नाकाम कोशिश कर रही थी । वर्षों बाद स्लीपर कोच में यात्रा करने से पुरानी यादों का पिटारा भी खुला हुआ था और खिड़की से आती पानी की बौछारों में मन के विचार भी भीग रहे थे ।
परिवार और बच्चों की ज़िम्मेदारी से चार दिन की मुक्ति और कॉलेज के दिनों जैसी बेपरवाह जिन्दगी और यात्रा जो शुरु हुई थी ।
किताब में नज़रें गड़ाये मस्तो जी अपनी बर्थ पर दाढ़ी खुजाते हुये बरसाती कीड़ों से बातें करते अपनी ही दुनिया में लीन थे ।
गलियारे में लगे बल्ब की मद्धिम रोशनी बरसाती कीड़ों को मोक्ष प्राप्ति के द्वार की तरह अपनी ओर बरबस बुला रही थी, और ट्रेन के बाहर पसरे घुप्प अंधेरे से सैकड़ों की संख्या में कीट पतंगे कुम्भ मेले के श्रद्धालुओं की तरह ट्रेन में उमड़े पड़ रहे थे । मानो कह रहे हों कि “ तमसो मा ज्योतिर्गमय “ की अवधारणा सिर्फ़ इंसानों के लिये ही नहीं वरन् प्राणि मात्र के लिये है ।
मच्छर कानों में अपना ऑर्केस्ट्रा बजा ही रहे थे , नींद आँखों से कोसों दूर थी , सोचा क्यों न हम भी अपना राग अलापें । तब तक अपूर्वा भी गर्मी और उमस से कसमसा कर उठ बैठीं आखिर हमारी बेवजह यात्रा की असिस्टेन्ट डायरेक्टर जो ठहरीं । चर्चा छिड़ी मानवीय मन और मस्तिष्क के तारों और हमारे व्यवहारों की । अवचेतन और चेतन मन के पारस्परिक कनेक्शन और आपसी ताल मेल की । कितना कुछ हम बेवजह करते हैं अपने जीवन में , ग़ुस्सा करने से लेकर टाइम पास करने और यात्रायें करने तक ,, चेतन मन की कसौटी पर “बेवजह “ लगने वाले ये कर्म क्या कहीं न कहीं हमारे अवचेतन मन की परतों में दबी इच्छाओं का बहिर्गमन नहीं होते ?? कहते हैं प्राणि मात्र पुन: पुन: शरीर रूप में तब तक जन्म लेता रहता है जब तक कि सभी इच्छाओं से मुक्ति न पा ले या यों कहें कि इच्छाओं को पूरा न कर ले । तो चेतन मन से ज़्यादा तो अवचेतन में ढकेल दी गई हमारी गहरी उत्कंठायें ही अधूरी रह कर हमें पुनर्जन्म के इस जंजाल से छुटकारा नहीं पाने देंतीं ।
ख़ैर ज्ञान गंगा में गोते लगाते हम तब तक चर्चा का दौर चलाते रहे जब तक कि ट्रेन ने झूला झुलाने वाली स्पीड से हमें थपकी देकर सुला नहीं दिया ।
यूँ तो मल्टी स्टोरी अपार्टमेन्ट्स के दड़बों के दौर में जीने वाले हम बन्द खिड़कियों , ए सी की आर्टिफिशियल ठंडक और दोहरों में दुबके मोबाइल के अलार्म और स्क्रीन की रोशनी को ही सुबह की पहली किरण समझने लगे हैं , पर यदि आप भारतीय रेल के स्लीपर कोच में यात्रा कर रहे हों तो ब्रह्म मुहूर्त की दस्तक देने के लिये खिड़की के शीशे से छनकर आती नीली सुबह धरती और सूरज के अस्तित्व का आग़ाज़ कराती है । बीच के स्टेशनों पर उतरते यात्री भी वक़्त बेवक्त आपको खटखटाते रहते हैं ।
ट्रेन काठगोदाम पहुँची तो हम “बेवजह “ के नौ रत्न .. अपने अपने रंग में चमकने लगे । तीन से आपका तार्रुफ हो ही चुका है , बाक़ी रत्नों से भी परिचय करवा दूँ । सॉफ्टवेयर एक्सपर्ट गीतांजलि और किताबों साहित्य में खोयी उनकी मम्मी , अपूर्वा के दाहिने हाथ कैमरामैन ऋषि और नेत्र विशेषज्ञ डॉ निधि पांडेय के अलावा हमारे सहयात्री थे लव बर्ड्स गुंजन और गौरव । पिछली बेवजह यात्रा में इनका परिचय हुआ था और अब जीवन साथी हैं । मद्धिम बूँदा बाँदी ने सेल्फ़ी लेने वालों और कैमरामैन के मन को भी अन्दर तक भिगो दिया । अपूर्वा ने छतरी की ओट से महँगे कैमरे को बचाते हुये दो डॉक्टरनियों की “मॉडलिंग ,विद ट्रेन इन रेन “ को क़ैद करने में ऋषि को पूरा सहयोग किया ।
काठगोदाम के साफ़ सुथरे छोटे से स्टेशन की कैंटीन में तवे पर सिंक रहे आलू के पराँठों की ख़ुशबू और स्वाद को बारिश की बूँदों ने दोगुना कर दिया था । हमारी घ्राणेन्द्रियों में भी कुछ ऐसी अदृश्य राडार तरंगें बिछी हुई हैं कि ट्रेन में अगर कोई पूड़ी और आम के अचार का डिब्बा खोले या ढाबे और स्टेशन पर पराँठों का पैकेट तो उसकी ख़ुशबू किसी पाकिस्तानी जासूस की तरह भारतीय गृह मंत्रालय में बैठी जठराग्नि को उद्वेलित कर ही देती है ।
नौ रत्नों की पेट पूजा सम्पन्न हुई , तो उन्हें लेकर मिनी बस या टेम्पो ट्रैवलर आप जो भी नाम देना चाहें , पहाड़ी रास्तों पर चल पड़ी । धुँआधार बारिश की धुन पर हमारे नये पुराने हिन्दी पंजाबी फ़िल्मी गानों की अन्त्याक्षरी भी पहाड़ों और गरजते बादलों के सुर में सुर मिलाने लगी ।
बीच बीच में बारी बारी से बेवजह यात्री अपने घरों से आये हितैषियों की फोन कॉल्स का जवाब कम और सफ़ाई ज़्यादा दे रहे थे कि आखिर बरसात की ख़तरनाक लैन्ड स्लाइड्स और ऑफ सीज़न में कौन और क्यूँ पहाड़ों पर जाता है ? अब उन परिवार वालों को कौन समझाये कि “ बेवजह “ के लोगों की हरकतों के पीछे कोई व्यवहारिक वजह नहीं होती , वो तो बस आत्मिक आनन्द में सराबोर होना चाहते हैं और भीगते पहाड़ों , जंगलों और बरसाती नदियों को देखने और आत्मसात कर अपने अन्दर भर लेने का जो सुख है उसे हर चीज़ में वजह खोजने वाले इस जन्म में तो नहीं ही समझ पायेंगे ।
ड्राइवर साहब बीच बीच में आगे की सड़क और रास्ता खुला होने की जानकारी अपने गैंग वालों से ले रहे थे । कहीं कहीं बारिश के साथ सरकती पहाड़ी मिट्टी और दरकती चट्टानों के टुकड़ों को लगातार साफ़ करने के बावजूद छोटी गाड़ियों के आवागमन पर रोक की ख़बर सुन कर कभी कभी हम सब में भी सिहरन दौड़ जाती थी । हम मिडिल क्लास हिन्दुस्तानियों के एडवेन्चर लेस जीवन को एडवेन्चरेस बनाने के लिये इतनी डोज़ ही पर्याप्त थी । डिस्कवरी और ज्यूग्राफिक चैनलों पर एडवेन्चर सीकर्स के कारनामे देखकर ही ख़ुश हो लेने वालों के लिये असल जीवन में लैन्ड स्लाइड और भूकंप की व्हाट्सऐप अफ़वाह ही एडवेन्चर की अनुभूति के लिये पर्याप्त है । हाँ तो हम भारतीयों के जीवन में असली एडवेन्चर हो या न हो , बारिश है तो भजिया , गर्म पकौड़े , समोसा और स्टेट के अनुसार वड़ा पॉव ज़रूर होता है वो भी अदरक वाली कड़क चाय या फ़िल्टर कॉफ़ी के साथ।
जैसे जैसे बस ऊपर चढ़ रही थी , हमारी बाल सुलभ आतुरता भी अपने देशी स्कॉटलैण्ड की ख़ूबसूरती से परवान चढ़ रही थी। सीढ़ीदार खेतों में धान रोपती , बारिश में भीगती , घुटने तक पानी में खड़ी स्त्रियाँ चलती फिरती पेन्टिंग्स जैसी लग रहीं थीं । एक दूसरे को बस की खिड़कियों से कुछ न कुछ दिखाने की चेष्टा में लगे हम सब ने आखिर बस को रोकने की मंशा व्यक्त कर ही दी , जिससे इस नैसर्गिक नज़ारे को नज़र भर कर देख सकें । बस रुकी तो देवदार के दो पेड़ों के बीच बिखरी हरी -भरी घाटी की सुन्दरता देखकर हम सब ठिठक गये । ऊपर उड़ते बादलों के बीच से झाँकते और आँख – मिचौली खेलते हरे -हरे खेत , नाशपाती , आड़ू और अलग अलग रंगों के फूलों से सजी जीवन्त पेंटिंग को मानो देवदार और चीड़ के तनों रूपी फ़्रेम में ईश्वर ने खुद जड़ दिया हो ।
फूलों और फलों से लदी घाटी में गाते बजाते हम पहुँच रहे थे “ बुरांश “ और बस में पीछे की सीट पर बैठे मस्तो जी बार बार फोन पर जिस तरह देर से आने की सफ़ाई दे रहे थे , लग रहा था कि कोई बहुत बेसब्री से उनका इन्तज़ार कर रहा है ।
बुरांश के दरवाज़े पर हमारे स्वागत में अपने पापा मम्मी के साथ खड़ीं “प्रसन्ना “ अपनी मिनियन स्माइल से अपने नाम को चरितार्थ कर रहीं थीं । बुरांश के फूल जैसा चटक और जीवन्त “ बुरांश रिसॉर्ट बयाँ कर रहा था , थ्रीश कपूर अंकल और उनके परिवार के स्नेह और संरक्षण का । रिसॉर्ट का एक एक कोना अपने हाथों से सँवारा और पुचकारा गया था ।
तो मुम्बई और लखनऊ की भीड़ भरे दीवाने आम से बेदख़ल “नौ रत्नों “ ने जब रुहानी प्यास बुझाने के लिये बुरांश में भीगते भागते लैण्ड किया तो लगा कि प्रकृति का मन हम बेवजह पथिकों पर पसीज गया है । और यात्रा की थकान उतारने और दुलारने के लिये प्रकृति माँ खुद कपूर अंकल आंटी के रूप में मानव देह में प्रकट हो गयी हैं। माँ मिल जाये वो भी भारतीय तो सबसे पहले पेट पूजा होनी लाज़िमी है । खाने के लिये बैठे तो रेस्तराँ के घिसे पिटे मेनू की जगह , घर की गरमागरम तवा रोटियाँ , गुटके और पहाड़ी दाल ने घर से दूर भटकने वालों को घर की कमी नहीं महसूस होने दी ।
लन्च के बाद अपना अपना झोला – झण्डी लेकर हम कमरों में पहुँचे तो वॉल साइज़ खिड़की से झाँकते हिमालय को देखकर अवाक् रह गये । हिमालय हमें ऐसे देख रहे थे जैसे ससुराल से मायके लौटी बेटी पार्वती का आलिंगन करने के लिये बाँहें फैलाये आतुर खड़ें हों । शहर की आपाधापी और जद्दोजहद से दूर हिमालय की गोद में लौटने का जे सुख है वो मायके लौटी बेटी के सुख से कमतर नहीं है ।
जब हम अपने कमरों की मानवाकार खिड़कियों से बादलों में लुकते छिपते हिमालय के साथ जी भर कर आँख मिचौली खेल कर फ़ारिग़ हुये तब तक शाम की चाय और बैठकी का मुहूर्त हो चला था ।
चाय के साथ मस्तो बाबा की पोटली खुली तो “ ठेले पर हिमालय “ निकल पड़ा । पच्चीस साल पहले हाई स्कूल की हिन्दी की किताब में जब इस दिलचस्प शीर्षक पर नज़र पड़ी थी तो कुतूहल में धर्मवीर भारती जी की ये रचना एक साँस में पढ़ डाली थी । और रचना ख़त्म होते होते दिल में “कौसानी “ घूमने की जो उत्कंठा जागी थी वो शायद इतने सालों और जिन्दगी की ज़िम्मेदारियों के चलते , अवचेतन में कहीं हेरा गई थी । जीवन में कई बार अनुभव किया है कि किसी चीज़ को मन की गहराइयों से चाहो तो सृष्टि कभी न कभी उसे आपके सामने अचानक ला खड़ा करती है ।
मस्तो ने जब पुस्तक “ठेले पर हिमालय “ मेरी ओर पढ़ने के लिये आगे बढ़ायी तो लगा जैसे हमारी यात्रा और मानसिक अनुभूति की स्क्रिप्ट धर्मवीर भारती जी बरसों पहले ही लिखकर रख गये थे । कौसानी का वर्णन शब्दश: वही था जो हम इस पल में न केवल जी रहे थे वरन् दिल की गहराइयों में भी वही महसूस कर रहे थे । भारत का ये मिनी स्विट्ज़रलैंड शायद किसी तरह आधुनिक शहरीकरण और प्रदूषण से बच गया था , और हम बेवजह लोगों को जीवन की अनुभूति देने की वजह बन गया था ।
कपूर अंकल के छायाचित्रों का संकलन अपने आप में हिमालय के सुदूर बसे गाँवों और कैलाश की तलहटियों की सुन्दरता और वहाँ के लोगों के शान्त निश्छल जीवन की कहानियाँ बयाँ कर रहा था । हर फ़ोटो से जुड़ी कहानी और अनुभव सुनाते हुये कपूर अंकल अपनी हिमालय कैलाश यात्रा में खो गये थे । और इन कहानियों को सुनते सुनते हम कब हिमालय की गोद में सो गये , पता ही नहीं चला ।
सुबह सवेरे जब सूर्य देवता ने अपनी किरणों से बर्फ़ की चोटियों को सुनहरा कर दिया तो हम फिर बालकनी में डेरा डालकर बैठ गये , हिमालय दर्शन के लिये । डॉ निधि ठहरीं आँखों की डॉक्टर और मैं सौन्दर्य चिकित्सक , डेडली कॉम्बो , भला सुकून से एक जगह कहाँ बैठने वाले …, निकल पड़े आँखों के ज़रिये प्रकृति के सौन्दर्य का रसास्वादन करने । सुबह की सैर में जहाँ भीगे पत्तों से टपकता पानी हमारी आत्मा को संतृप्त कर रहा था वहीं ऊँची नीची पगडंडियों पर टहलते हमारी फिटनेस की ख़्वाहिश भी पूरी हो रही थी ।
लौटे तो चाय तैयार थी और सब हिमालय की सुनहरी श्रृंखलाओं को देखने में तल्लीन थे । प्रसन्ना ने बताया कि हम सबने कुछ अच्छे कर्म किये होंगे जिसके फलस्वरूप बरसात के मौसम में खुला आसमान और सुनहरी बर्फ़ देखने को मिल रही है । हिमालय की चोटियाँ भी बादलों का घूँघट बीच बीच में खोलकर मानो हमसे मुँह दिखाई माँग रही थीं । कपूर अंकल के छाया चित्रों में पहाड़ी दुल्हनों की नक़्क़ाशीदार लम्बी लम्बी नथों को देखकर पोर्ट्रेट बनाने का दिल कर आया । हिमालय का साक्षात्कार करके हुये पेंसिल और पोर्ट्रेट में मन ऐसा रमा कि मस्तिष्क पटल पर कबीर की साखी उभर आयी । “ घूँघट के पट खोल , तोहे पिया मिलेंगे “
डाइनिंग हॉल की दीवारें शीशे की थीं जिनसे बाहर का दृश्य पूरी तरह दिखता था । पेट की भूख के साथ साथ हमारी आत्मिक क्षुधा भी तृप्त हो रही थी । किसी खिड़की में देखो तो नाशपाती और आड़ू के पेड़ तोतों की टीं टीं से गुंजायमान थे तो दूसरी खिड़की में हिमालय के ऊपर से बादल ऐसे उड़े जा रहे थे मानो हिमालय की चोटी न हो किसी फ़ैशन शो की शो स्टॉपर हो ।
और ज़रा सर उधर घुमायें तो चाय के बाग़ानों के बीच से बहती पहाड़ी नदी दीख पड़ रही थी , जिसमें मस्तो जी को अपनी विरहणी आँसुओं की लड़ी बनकर बहती नज़र आ रही थी ।
जिस कौसानी का नैसर्गिक सौन्दर्य इतना रमणीय हो वहाँ “पन्त “ जैसे भावुक कवियों को क्यों न प्रकृति रूपी प्रेमिका अपने पाश में बाँध लेगी । और वो कह उठेंगे ,, छोड़ द्रुमों की मृदु छाया , बाले तेरे बाल जाल में कैसे उलझा लूँ दृग – लोचन “
और गांधी बापू भी चाहे अनासक्ति आश्रम मे कितनी ही साधना करें , क्या प्रकृति के इस अप्रतिम सौन्दर्य से अनासक्त हो पायेंगे ??
हमारी दोपहर की बैठकी हुई छायावाद और प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानन्दन पन्त के घर के आँगन में बनी लाइब्रेरी में । गांधी जी के अनासक्ति आश्रम में बन्दरों के साथ भ्रमण करके हम वापस बुरांश की बालकनी में हिमालय पर आसक्त होकर जम गये ।
शाम की चाय – पकौड़ों के दौर में “ खद्दू “ महाशय ने शिरकत तो की पर सांकेतिक रूप से ही । खद्दू जी प्रसन्ना के पालतू बिलौटे हैं और अपने नाम के अनुसार सब कुछ चखते ज़रूर हैं पर हैं बड़े चूज़ी । दूध , पनीर के शौक़ीन पर रोटी और डबलरोटी से परहेज़ । शायद मेहमानों के सामने फ़िट दिखने की चाहत में फ़िगर कॉन्शस हो गये थे और “ कीटो” डायट पर थे ।
जैसे जैसे शाम का धुँधलका छाने लगा , चाँद अपना शबाब बिखेरने लगा । पूर्णमासी की रात होने से चारों ओर चाँदनी बिखरी हुई थी और हिमालय की चोटियों की बर्फ़ चाँदी जैसी लग रही थी। रात में चाँदी और सुबह सोना हो जाने वाली इस बर्फ़ के वैभव का अनुभव करने वालों में मानव निर्मित उपादानों और धन दौलत के प्रति अनासक्ति हो जाना स्वाभाविक भी है और स्वत: भी । शायद इसीलिये बापू ने अनासक्ति आश्रम बनाने के लिये कौसानी को चुना ।
कैमरा संभाले ऋषि को भी वन्स इन लाइफ़ टाइम शॉट्स मिल रहे थे , कपूर अंकल के सानिध्य में सुदूर हिमालय को कैमरे में कैप्चर करने के खास टिप्स भी ।
अगली सुबह अपूर्वा ने कुछ खास खेल रखे थे बेवजह यात्रियों के लिये । आपस में संवाद करना था , कहानी भी गढ़नी थी और एक्टिंग भी करनी थी , पर बिना शब्दों वाली भाषा में । ऐसा लगा मानो हम पाषाण युग में चले गये हों और आदिमानव की तरह भाषा और संवाद के ज़रिये का आविष्कार कर रहें हों । इस खेल के अभ्यास ने सिविलाइज्ड जीवन की परतों में दब गये हमारे मानस पटल को अनावृत कर दिया था और प्रकृति के सानिध्य को और प्रगाढ़ । मन और मस्तिष्क को डिटॉक्सिफिकेशन की इस डोज़ के बाद हम निकल पड़े कौसानी की पगडंडियों पर खेतों और चाय बाग़ानों की ओर । प्रसन्ना का पैतृक घर लकड़ी से बना था । दो तल में बना घर अन्दर से गरम और काफ़ी आरामदायक था । पास ही गोशाला थी जिसके आस पास बुरांश , आड़ू , नींबू जैसे फलों के पेड़ थे । पानी की पतली धाराओं में छपछपाते हमारे पैर , पतली पगडंडियों पर कदम बढ़ा रहे थे ।
चलते चलते इतनी दूर पहुँच गये कि कभी लगा जैसे बादलों के बीच में चल रहे हैं और कभी क्षितिज का हिस्सा बन उसी में विलीन हो गये हों ।
पहाड़ की चोटी पर बैठे बादलों के एक टुकड़े पर नज़र पड़ी जिसकी बारिश सिर्फ़ उस छोटे गाँव में हो रही थी जो उनके नीचे था । ऐसा लगा मानो हमें अन्तरिक्ष में बैठकर धरती के अलग अलग हिस्सों को देखने की संजय दृष्टि मिल गयी हो । शायद गीता में स्वयं को दुनियादारी के मायाजाल से निस्पृह करने हेतु इसी दृष्टिकोण का ज़िक्र किया गया है ।
एक तरफ़ जहाँ हम मानवीय कृत्रिमता और चमक दमक से डिटॉक्सिफाइ हो रहे थे वहीं “बेवजह “ का एक प्रेमी युगल बाक़ी दुनिया से बेपरवाह एक दूसरे में ऐसा खोया था , जैसे उनका मोक्ष एक दूसरे में ही निहित है । दो जिस्म एक जान , फ़िल्मों और क़िस्सों में सुना था , पर गुंजन और गौरव की जोड़ी इसका साक्षात् प्रमाण थी ।
आत्म दर्शन यात्रा नाम दूँ या फिर डिटॉक्स , क्या फ़र्क़ पड़ता है ? इस बेवजह यात्रा का आख़िरी दिन भी आ ही गया , प्रसन्ना की मिनियन स्माइल के पीछे से विदा की वेदना भी झलक आयी । सुबह सुबह कपूर अंकल की क्यारियों में रोज़मैरी , लेमन ग्रास जैसे अनेकों जड़ी -बूटियों और प्राकृतिक हर्ब्स के पौधों से जान पहचानकर हम अपनी बस में सवार होने लगे तो कपूर आंटी ने लेमन ग्रास की पोटली ऐसे मेरे हाथों में पकड़ा दी मानो मायके से विदा होती बेटी की पठौनी बाँध रही हों ।
पहाड़ी गाँवों की महिलाओं के हाथ से बनी चीज़ों के कलेक्शन से हम सबने कुछ न कुछ लिया । मैंने भी पिता जी के लिये अंगोरा खरगोशों के मुलायम सफ़ेद बालों से बनी एक शॉल ली थी।
लौटते समय पास के एक प्राचीन शिव पार्वती मन्दिर में दर्शन करते हुये कुछ सदस्यों ने मन्दिर से लगी झील में नहाने और पानी में अठखेलियाँ का आनन्द भी लिया । अपूर्वा और ऋषि हमारी यात्रा के अनुभवों को अपनी डॉक्युमेन्ट्री फ़िल्म में संजोये में लगे रहे । रास्ते में एक प्रसिद्ध पहाड़ी ढाबे में शुद्ध पहाड़ी डिशेज का आनन्द लिया गया और काठगोदाम स्टेशन पहुँचकर बेवजह यात्रा की समाप्ति की आधिकारिक घोषणा मस्तो जी ने की । पर क्या ऐसी यात्रायें कभी वास्तव में ख़त्म होती हैं ये तो उन कड़ियों और अनसुलझे प्रश्नों को जोड़ती हैं जिनके निवारण के लिये हम धरती पर जन्म लेते हैं ।
स्लीपर में यात्रा का अभ्यास छूट जाने और जुलाई का महीना होने से चादर , तकिया कुछ भी साथ नहीं लिया था । तो बस हाथ में पकड़ायी लेमन ग्रास की पोटली को सर के नीचे रखकर तकिया बना लिया और अंगोरा शाल की स्नेहिल थपकी ओढ़कर सो गये ।
कौसानी और बुरांश में बिताये हुये पल हम बेवजह यात्रियों के दिलों मं हमेशा जवाँ रहेंगे , आज एक साल बीत जाने पर भी ऐसा लगता है कि बस अभी बादल छँटेंगे और हिमालय देखकर हम सब उछल पड़ेंगे ।
– Dr. Prabha Singh
– P.C. Rishi Raj Maurya